“उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है, जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है ”
कॉलेज महज़़ कुछ इमारतों या कक्षाओं से नहीं बनता, वह प्रशासन या प्रोफेसर से भी नहीं बनता, कॉलेज को उसकी सार्थकता देते हैं, उसके विद्यार्थी। आईआईटी कानपुर कहने को तो देश के सबसे प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में शुमार है, परन्तु पिछले 11 महीनों से विद्यार्थियों के बिना यही शिक्षण संस्थान अपने अस्तित्व की ज़मीन खोजने की कोशिश कर रहा है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 4500 से ज्यादा विद्यार्थी बिना कॉलेज के इस ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली का अर्थ एवं उद्देश्य ढूंढने में लगे हैं। इस ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली में जहाँ शिक्षकों को कोल्हू के बैल समान परिश्रम करवाया जा रहा है और बच्चे तिल समान पीसे जा रहे हैं, वहीं प्रशासन जमींदार समान होने वाले लाभ को देख के फूला नहीं समा रहा जिसकी कीमत विद्यार्थी मानसिक शोषण और शैक्षणिक हानि से चुका रहे हैं। प्रशासन का निहित कर्तव्य अपने विद्यार्थियों का सम्पूर्ण विकास सुनिश्चित करना और उनके अधिकारों की रक्षा करना है लेकिन जिस प्रकार आईआईटी कानपुर प्रशासन ने पिछले 11 महीनों में UG छात्रों(पूर्व स्नातक विद्यार्थी) की अवहेलना एवं अनदेखी की है वह प्रशासन की निष्क्रियता की तरफ इंगित करता है। मार्टिन लूथर किंग ने इस संदर्भ में कहा है –
“Our Lives begin to end the day we become silent about the things that matter.”
निर्वाक आज ऐसे ही विषय पर चर्चा कर रहा है, और UG विद्यार्थियों की उस वेदना को आवाज़ देता है जो लम्बे समय से दबे स्वरों में उनके जीवन का केंद्र बनी हुई है।
13 मार्च 2020 को दोपहर 1 बजकर 16 मिनट पर डायरेक्टर द्वारा भेजे गए ईमेल में यह सूचित किया गया कि मिड-सेमेस्टर ब्रेक 29 मार्च तक बढ़ाया जा रहा है। गठित टास्क फ़ोर्स ने, 20 मार्च 2020 को कैंपस सभी विद्यार्थियों के लिए बंद कर दिया। PG छात्रों को वापिस कैंपस बुलाने का पहला नोटिस 5 सितम्बर 2020 को जारी किया गया जो कैंपस लॉकडाउन के ठीक साढ़े 5 महीने बाद था। लेकिन आज 11 महीने बाद भी ऐसा कोई आधिकारिक नोटिस संस्थान प्रशासन ने UG विद्यार्थियों के लिए जारी नहीं किया है। 328 दिन या लगभग 11 महीने गुज़र जाने के बाद भी प्रबंधन ने UG छात्रों को वापस बुलाने के लिए कोई तत्परता नहीं दिखाई है। एक ओर जहाँ PG विद्यार्थियों को साढ़े पांच माह में ही वापस बुलाने की कवायद चालू कर दी गयी वहीं UG छात्रों के प्रति संस्थान का उपेक्षापूर्ण व्यवहार उसके रवैये पर कई सवाल खड़े करता है।
ऑनलाइन शिक्षा पद्धति
किसी भी शिक्षण संस्थान की ज़िम्मेदारी उसके छात्रों को सिर्फ पाठ्यक्रम या पाठन-सामग्री उपलब्ध कराने तक सीमित नहीं होती है, उसका कर्तव्य यह भी सुनिश्चित करना है कि सभी विद्यार्थियों को सीखने के लिए एक समान संसाधन और परिस्थितियाँ उपलब्ध हों। समान परिस्थितियों का अभिप्राय एक समान रहना, एक समान खाना, पढ़ने का अनुकूल माहौल होना, मनोरंजन के लिए समान संसाधन होना और ऐसी हज़ारों रोज़मर्रा की गतिविधियों से है जो सभी को शिक्षा प्राप्त करने हेतु समान स्तर प्रदान करती हैं। कैंपस में छात्रों का एक साथ रहना यह समानता सुनिश्चित करता था, लेकिन कैंपस के बिना हर विद्यार्थी के लिए परिस्थितियाँ, माहौल, संसाधन, कर्तव्य आदि सब अलग-अलग हैं। लेकिन हमारे आला अधिकारियों ने महज़ “Stable Internet Connection” को पैमाना बनाकर इस समानता का मज़ाक बना दिया है। निर्वाक द्वारा किये गए सर्वे में यह बात सामने आई कि 60% से अधिक छात्र जो मध्यम-वर्गीय या वित्तीय रूप से कमज़ोर परिवारों से आते हैं उनके पास एकाग्रचित्त अध्ययन (peaceful study) के लिए घर में अलग कमरा तक नहीं है। अपने छोटे भाई-बहनों को पढ़ाना, घर के कामों में मदद करवाना, आर्थिक गतिविधियों में सहयोग करना इत्यादि ऐसे हज़ारों काम हैं जो कई छात्रों को दैनिक रूप से करने पड़ते हैं। निर्वाक द्वारा किये सर्वे में जब यह प्रश्न पूछा गया तो यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई कि 80% से ज्यादा विद्यार्थी साप्ताहिक रूप से 7 घंटों से भी ज्यादा ऐसी घरेलू गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। जो विद्यार्थी आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों से आते हैं उनके लिए ये आंकड़ा 20 घंटे से भी कहीं ज्यादा है। प्रशासन ने जिस प्रकार सामाजिक परिवेश, घरेलू परिस्थितियाँ, संसाधन की उपलब्धता, पारिवारिक माहौल इत्यादि मानकों को सिरे से खारिज करके केवल पर्याप्त इंटरनेट उपलब्धता को एक मानक माना है उससे ये बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि प्रशासन विद्यार्थियों को मनुष्य के तौर पर नहीं, एक रोबोट या निर्जीव पुतले के समान देखता है।
डीन, अकादमिक अफेयर्स (DoAA) ने सभी फैकल्टी मेंबर्स को ऑनलाइन सत्र हेतु कुछ दिशा निर्देश जारी किये थे, जिसमे एक मुख्य बिंदु सतत मूल्यांकन (continuous evaluation) था। कई कोर्सेज़ में यह बात देखी गयी है कि सतत मूल्यांकन की आड़ में परीक्षाओं (weekly/monthly quizzes) और असाइनमेंट की संख्या बढ़ा दी गयी। जब इस बारे में छात्रों ने डीन अकादमिक अफेयर्स को ईमेल किये तो उन्होंने कोर्स इंस्ट्रक्टर का ग्रेडिंग पॉलिसी पर स्वतंत्र अधिकार होने की दुहाई देकर पल्ला झाड़ लिया। उदाहरण के लिए सेकंड ईयर के एक IC (3 क्रेडिट) कोर्स में छात्रों को प्रति सप्ताह 7 घंटे से भी अधिक काम दिया जा रहा था, और इसी तरह अधिकांश कोर्स में छात्रों को आवंटित समय से अधिक का गृहकार्य दिया जा रहा है। हफ़्ते भर चलने वाले इन्ही असाइनमेंट और एग्ज़ाम्स का नतीजा यह सामने आ रहा है कि अब बच्चों का मुख्य उद्देश्य सीखने-समझने से उलट, परीक्षा के लिए रटना और असाइनमेंट डेडलाइन से पहले सबमिट करना रह गया है। कोरोना महामारी में आर्थिक मंदी के बावज़ूद भी छात्रों के लिए ट्यूशन फीस में किसी प्रकार की कोई कटौती नहीं की गई है। जहाँ सामान्य सेमेस्टर के अनुरूप ही छात्र अभी भी एक लाख ट्यूशन फीस देने को मजबूर हैं, वहीं शिक्षा का गिरता स्तर अपने आप में खतरे की घंटी है।
यह बात भी ज़ाहिर है कि कई मौक़ों पर बहुत से प्रोफेसर ने ऑनलाइन शिक्षा की कड़ी निंदा की है और इस प्रणाली पर दुःख व्यक्त किया है। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली से न शिक्षक का उद्देश्य पूरा हो रहा है न शिष्य का, आसानी बस प्रशासन को हो रही है जिन्होंने mookit ,codetantra नामक खिलौने सबके सामने रख दिए हैं। आईआईटी कानपुर जो अपनी शैक्षणिक गुणवत्ता के लिए जाना जाता है उसमें शिक्षा का इस तरह मखौल बनना न सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण है अपितु शर्मनाक भी है।
छात्रों में बढ़ता मानसिक तनाव
बढ़ते मानसिक तनाव का मुद्दा अब महज़ बहस या चर्चाओं तक सीमित नहीं रहा है, ज़मीनी स्तर पर भी इसका प्रभाव दिखने लगा है। किसी भी छात्र के जीवन की आधारशिला उसकी शिक्षा होती है, और यह बात जगज़ाहिर है कि एक स्वस्थ मस्तिष्क ही शिक्षा को ग्रहण कर उसे अपने लिए उपयोगी बना सकता है। लेकिन ऑनलाइन शिक्षा, सामाजिक अलगाव, एवं संस्थान प्रशासन द्वारा UG छात्रों की उपेक्षा अब उनके लिए बढ़ते मानसिक तनाव का कारण बनती जा रही है। निर्वाक द्वारा किये गए सर्वे में जब यह सवाल पूछा गया कि ” क्या आप उसी एकाग्रता से पढ़ाई कर पा रहे हैं जिस तरह आप अन्य सेमेस्टर( या जे.ई.ई.) के दौरान करते थे?” तो 88% से अधिक लोगों ने यह बात सामने रखी कि उनके एकाग्रता का स्तर गिर गया है, इन्ही में से लगभग पचास प्रतिशत छात्रों ने कहा कि उनकी एकाग्रता और दक्षता (productivity/efficiency) बिलकुल ही न्यूनतम स्तर पर पहुँच चुकी है। सर्वे में 90% से अधिक छात्रों ने इस बात को माना कि ज्यादा समय स्क्रीन के सामने रहने के कारण उनकी एकाग्रता में कमी आयी है। लम्बे समय तक स्क्रीन के सामने रहने के कारण मानसिक तनाव के साथ-साथ शारीरिक रोग भी बढ़ते जा रहे हैं। मोटापा, पीठ-दर्द, आँखों में जलन, आँखों का कमजोर होना, यहाँ तक की रक्तचाप जैसी समस्याओं का सामना विद्यार्थियों को करना पड़ रहा है। यह सभी आंकड़े इस सच्चाई को साफ़ इंगित करते हैं कि ऑनलाइन शिक्षा विद्यार्थियों के लिए सीखने का कारण नहीं बल्कि बोझ बनती जा रही है। शायद इस बोझ को त्रासदी कहना गलत नहीं होगा क्योंकि मानसिक एवं शारीरिक सेहत पर जो बुरा प्रभाव पड़ रहा है उसका ख़ामियाज़ा छात्रों को जीवन में लम्बे समय तक भुगतना पड़ेगा। आईआईटी कानपुर प्रशासन के अधिकारीगण तो अपनी सामान्य ज़िंदगी बहुत समय पहले ही शुरू कर चुके हैं, हालांकि उन्होंने छात्रों के बारे में सोचना वैसे ही छोड़ दिया है जैसे कोई तानाशाह अपनी प्रजा को उसके हाल पर छोड़ देता है।
कैंपस लाइफ का अभाव अब छात्रों के व्यक्तित्व पर भी साफ़ दिखने लगा है। एक ओर जहाँ उनका सामाजिक दायरा सिमटता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर दिन भर स्क्रीन के सामने रहने के दुष्प्रभाव भी साफ़ उनके व्यवहार में झलक रहे हैं। निर्वाक द्वारा किए सर्वे से यह बात स्पष्ट होती है कि छात्रों में आपसी संवाद, चर्चाएँ, यहाँ तक कि रोज़मर्रा का संपर्क भी समाप्त हो चुका है। जो छात्र कैंपस में सुबह की चाय अपने दोस्तों के साथ MT पे पीते थे, दिन में डिपार्टमेंट के साथियों के साथ क्लास जाते थे, रात में क्लब के साथियों के साथ हँसी मज़ाक करते थे, पिछले 11 महीनों से बस कम्प्यूटर/मोबाइल के सामने टकटकी लगाकर पूरा दिन निकाल रहे हैं। सामाजिक दायरे के घटने और बढ़ते अकेलेपन से छात्रों में निराशा अब अवसाद (Depression) का रूप लेने लगी है। आश्चर्य की बात ये है कि संस्थान का “Mental Health Support” ”काउंसलिंग सर्विस” भी छात्रों में बढ़ रहे अवसाद की सुध नहीं ले रहा है। काउंसलिंग सर्विस महज़ परीक्षाओं से पहले तनाव से निपटने के इक्का-दुक्का सेशन करवाकर अपनी ज़िम्मेदारी पूर्ण मान लेता है। कोरोना महामारी और ऑनलाइन सेमेस्टर में जब छात्रों को सबसे ज्यादा मेन्टल और इमोशनल सपोर्ट की आवश्यकता थी तब काउंसलिंग सर्विस अपनी ज़िम्मेदारी से नदारद रहा। उन्होंने “Coping 101″ नाम से जो सीरिज़ चलाई, वह महज़ ऑनलाइन पोस्टर के रूप में सिमट कर रह गयी। काउंसलिंग सर्विस की आधिकारिक वेबसाइट के पहले पेज पर लिखी हुई पंक्ति, ” We are a team of professional counsellors, empathetic students and faculty advisors to assist you emotionally and academically “, निरर्थक और बेमानी प्रतीत होती है। निर्वाक द्वारा किये गए सर्वे में भी 88% से ज्यादा लोगों ने काउंसलिंग सर्विस के प्रयासों को औसत दर्जे से नीचे माना है, जिसमें गौर करने वाली बात यह है कि अधिकांश Y20 बैच के विद्यार्थियों ने भी काउंसलिंग सर्विस की इस विफलता को इंगित किया है। दबे स्वरों में काफ़ी समय से यह बात उठती रही है कि काउंसलिंग सर्विस प्रभाव-शून्य और महज़ कागज़ी इकाई है लेकिन कोरोना महामारी और ऑनलाइन सेमस्टर ने काउंसलिंग सर्विस के महज़ खानापूर्ति वाले रवैये को पूर्ण रूप से उजागर कर दिया है।
बढे़ हुए स्क्रीन टाइम की वजह से छात्रों में फ़्रस्ट्रेशन (frustration), एंग्जायटी अटैक्स (anxiety attacks), एंगर बर्स्टस (anger bursts) जैसी समस्याएँ भी बढ़ गई हैं जिनका ख़ामियाज़ा उन्हें निजी जीवन में भी उठाना पड़ रहा है। माता-पिता, भाई-बहन एवं घर के अन्य सदस्यों पर गुस्सा करना, चिड़चिड़ाना, अपनी हताशा का गुबार उनपर निकालने के कारण निजी रिश्तों में खिंचाव का सामना उन्हें करना पड़ रहा है। अधिकतर लोगों ने इसे कंप्यूटर/मोबाइल पर ज्यादा समय रहने का एक दुष्परिणाम बताया है। यह बात स्पष्ट है कि ऑनलाइन दुनिया अब न सिर्फ छात्रों की निजी ज़िंदगी पर बुरा प्रभाव डाल रही है, बल्कि उनके लिए अवसाद का मुख्य कारण बनकर भी उभर रही है। सवाल यह रह जाता है कि क्या छात्रों के बिगड़ते मानसिक स्वास्थ्य की ज़िम्मेदारी काउंसलिंग सर्विस लेगा, संस्थान के आला अधिकारी लेंगे या इसे भी “Institute of National Importance” नज़रअंदाज़ कर देगा?
प्रशासनिक इकाइयों का नकारात्मक रवैया
“We are also working out a detailed plan of entry of students to the hostels which will ensure safety, health and well being of all of you.”
संस्थान के डायरेक्टर, डीन अकादमिक अफेयर्स, डीन स्टूडेंट अफेयर्स आदि प्रशासन के अधिकारियों ने कई बार अपने ईमेल, फेसबुक पोस्ट्स और अन्य मंचों पर इस बात को लिखा और कहा है, लेकिन यह दावा भी अन्य आश्वासनों की तरह महज़ छात्रों को एक झूठी आशा देने के लिए इस्तेमाल किया गया। हमने पाया कि कई छात्रों ने पिछले 2-3 महीनों में कई अधिकारियों और फैकल्टी मेंबर्स को घर पर हो रही समस्याओं से, बढ़ते मानसिक तनाव से अवगत कराने की कोशिश करी, कई ईमेल भेजे लेकिन प्रशासन ने एक का भी जवाब देना ज़रूरी नहीं समझा। इतना ही नहीं यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग के एक वरिष्ठ प्रोफेसर नए बैच Y20 को ये कहते पाए गए कि यह संस्थान अब अंडरग्रेजुएट छात्रों के लिए नहीं है। यह संस्थान अब शोध केंद्रित संस्थान है और अंडरग्रेजुएट छात्र महज़ इस पर एक ‘बोझ’ (Liability) हैं। हाल ही में एक सीनियर प्रोफेसर ने कहा कि पिछली अकादमिक सीनेट की मीटिंग में अंडरग्रेजुएट छात्रों को वापिस बुलाने पर चर्चा भी नहीं हुई है। एक ओर जहाँ सभी छात्र कैंपस बुलाने की गुहार लगा रहे हैं वहीं हमारे अधिकारी इसपर चर्चा करना भी ज़रूरी नहीं समझते हैं।
संस्थान प्रबंधन के अलावा दूसरी प्रशासनिक इकाई जिससे छात्र अपने समस्याओं के समाधान की अपेक्षा करते हैं वह निर्वाचित छात्र प्रतिनिधि (Elected Student Representatives) हैं। हालांकि किसी भी छात्र नेता ने मुखर रूप से अंडरग्रेजुएट छात्रों की समस्याओं को प्रशासन के सामने नहीं रखा है ना ही उनपे ध्यान देना ज़रूरी समझा है। शायद ही कोई ऐसा दिन होगा जब हमारे इनबॉक्स में स्टूडेंट एग्जीक्यूटिव का कोई ईमेल ना आता हो। लेकिन लगभग पिछले 11 महीनों में गिने चुने ईमेल ही UG छात्रों की असल समस्याओं को लेकर आए हैं। निर्वाक द्वारा किए गए सर्वे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आई की केवल संस्थान प्रशासन नहीं UG छात्र नेता भी कैंपस जनता से संपर्क साधने और उनकी समस्या सुलझाने में विफल रहे हैं। वह प्रशासन की बोली में छात्रों को तो समझा सकते हैं कि संस्थान अपनी तरफ से पूरे प्रयास कर रहा है लेकिन छात्रों की आवाज़ बनकर संस्थान के बहरे प्रशासन के अधिकारियों को छात्र समस्याओं से अवगत नहीं करा सकते। किसी भी छात्र नेता की बातों का वजन उसके छात्र समर्थन और उसके साथ खड़े छात्रों से होता है, लेकिन जब यही प्रतिनिधि छात्र समस्याओं को छोड़ प्रशासन की बोली बोलने वाले महज़ एक कठपुतली बन जाएँ तो उनकी विश्वसनीयता और पद की गरिमा दोनों मिट्टी में मिल जाती है।
आईआईटी कानपुर की आधिकारिक ध्येय पंक्ति (Motto) “तमसो मा ज्योतिर्गमय” है, लेकिन जिस प्रकार हर एक प्रशासनिक इकाई हर स्तर पर विफल हुई है उससे यह पंक्ति महज़ एक जुमला बनकर रह गई है। निरंतर संवाद की कमी और बढ़ती निराशा अब छात्रों में आक्रोश का रूप अख्तियार कर रही है। कहीं यह आक्रोश किसी बड़ी आग को जन्म ना दे बैठे इसपर लगातार संशय बना हुआ है।
कुछ मुख्य प्रश्न
सवालों से मुँह मोड़ लेने या उनपर चुप्पी साध लेने से सवालों का अस्तित्व नहीं मिटा करता, बल्कि असंतोष की आग उन्हें और प्रबल कर देती है। ऑनलाइन सेमेस्टर और कैंपस वापिस बुलाने को लेकर संवाद के अभाव में जो समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, उनकी जवाबदेही आईआईटी प्रशासन की नैतिक ज़िम्मेदारी होने के साथ-साथ कर्तव्य भी है। निर्वाक आज ऐसे ही कुछ मुख्य प्रश्न सबके सामने रख रहा है :
- ऑनलाइन सेमेस्टर में विद्यार्थियों से एक लाख से ज्यादा फ़ीस वसूल की गई। बहुत से प्राध्यापक nptel, youtube इत्यादि पर लेक्चर अपलोड कर अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ ले रहे हैं। सतत मूल्यांकन की आड़ लेकर हर हफ़्ते परीक्षा और असाइनमेंट का बोझ डालने के कारण विद्यार्थी ज्ञान पर नहीं अंकों के पीछे भाग रहा है। ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली शिक्षा का नहीं शोषण का स्रोत बन चुकी है। इतनी ज्यादा ट्यूशन फ़ीस वसूलने के बाद भी, निम्न स्तर की शिक्षण पद्धति का प्रयोग कहाँ तक उचित है?
- मानसिक तनाव और हताशा से निपटने के लिए उपयुक्त संसाधन सभी को एक समान उपलब्ध नहीं है। विद्यार्थियों का एक बहुत बड़ा तबका मध्यम वर्गीय या वित्तीय रूप से कमज़ोर परिवारों से आता है जिनके लिए मानसिक तनाव कम करने के लिए कोई शौक(hobby) रखना एक विलासिता (privilige/luxury) है। पारिवारिक कर्तव्यों के चलते उन्हें काफ़ी समय अन्य गतिविधियों को देना पड़ता है, घरेलू झगड़ों और मन मुटाव के कारण भी छात्र का मानसिक तनाव बढ़ता है। घर पर पढ़ने के लिए सबके पास उपयुक्त एवं एक समान परिस्थितियों का अभाव है। ऐसे विद्यार्थियों के लिए संस्था प्रशासन ने ज़िम्मेदारी लेते हुए कोई भी विशेष प्रावधान या इंतज़ाम क्यों नहीं किए। एक ओर जहाँ PG विद्यार्थियों की डिग्री के लिए लैब की ज़रूरत होने की दुहाई देकर उन्हें कैंपस वापिस बुला लिया गया तब UG वर्ग के ऐसे छात्रों को क्यों प्रशासन की तरफ से तरजीह नहीं दी गई?
- जब UG छात्रों ने निरंतर ईमेल के ज़रिये प्रबंधन, प्राध्यापकों एवं छात्र प्रतिनिधियों को अपनी समस्याओं से अवगत कराया और कैंपस वापिस बुलाने का सवाल रखा तो उन्होंने इसे नज़रअंदाज़ करना क्यों बेहतर समझा। यह जानते हुए भी की छात्रों में लगातार निराशा और आक्रोश का स्तर बढ़ रहा है क्या प्रशासन किसी अनहोनी का इंतज़ार कर रहा है?
निष्कर्ष
कोरोना महामारी की वजह से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर के दरवाज़े सभी छात्रों के लिए 20 मार्च 2020 को बंद कर दिए गए थे। तब प्रबंधन का यह निर्णय सराहनीय एवं तर्कसंगत भी था लेकिन कॉलेज को बंद हुए 11 महीने होने को आ रहे हैं लेकिन उन्होंने अंडरग्रेजुएट छात्रों को वापिस बुलाने के लिए कोई जानकारी/रोडमैप सामने नहीं रखा है, ना ही इस विषय में कोई भी संवाद छात्रों से किया है। जानकारी की इसी कमी के चलते अफ़वाहों और अटकलों का बाज़ार भी गरम है जिसकी वजह से रोज़ कुछ न कुछ कानों सुनी ख़बरें अफ़वाहों का रूप ले लेती हैं। छात्र नेताओं ने भी प्रशासन के सामने विद्यार्थियों की समस्याओं को यथोचित रूप से नहीं रखा है, जिससे विद्यार्थी प्रतिनिधित्व के अभाव में अपनी आवाज़ प्रशासन तक नहीं पहुँचा पा रहे हैं। दिन-ब-दिन बढ़ता मानसिक तनाव अब छात्रों के बीच अवसाद का रूप लेने लग गया है। जब देश के अधिकतर राज्यों के स्कूल,कॉलेज विश्विधालय खुल रहे हैं, यहाँ तक DU, आईआईटी गुवाहाटी, आईआईटी इंदौर आदि भी अंडरग्रेजुएट छात्रों को वापिस बुलाने का नोटिस जारी कर चुके हैं ऐसे में आईआईटी कानपुर प्रशासन लम्बे समय से इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साधे हुए है। संस्थान प्रशासन का यह गैर ज़िम्मेदाराना रवैया अब उपेक्षा से बढ़कर UG विद्यार्थियों के लिए मानसिक शोषण का रूप ले चुका है। शोषण एक ओर जहाँ क्रांति का जनक है वहीं दूसरी ओर अनहोनी की आशंका भी बढ़ा देता है। आखिर आईआईटी कानपुर प्रशासन किसका इंतज़ार कर रहा है – छात्र आंदोलन का या कई और बेकसूरों की मौत की ख़बर को अख़बार की हेडलाइन बनने का।
“ हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही ”
~ साहिर लुध्यानवी
Footnotes:- [1] The sher used in the starting of article is written by “Wasim Barelvi” .
[2] Survey results for the figures mentioned in the article can be accessed here : https://drive.google.com/file/d/1nmE2deifmObPJoGS071MM5PRXSvbtnbc/view?usp=sharing
[3]PDF file for the Nirvaak can be accessed here: https://drive.google.com/file/d/12WBk7AGDYKZYkCkpIw60URuzd4Kmh6TU/view?usp=sharing